हमारे आदर्ष एवं प्रेरणा के स्त्रोत

पूज्य पिता पं0 उमादत्त जी त्रिवेदी, आयुर्वेदाचार्य एवं पूज्या माँ श्रीमती चम्पादेवी

हमारा उद्देश्य

श्रीमती चम्पा देवी वैदिक संस्थान का मुख्य उद्देष्य वैदिक पुस्तकों का प्रकाशन करके केवल लागत मूल्य पर सबको उपलब्ध कराना तथा वेद विद्यालयों की स्थापना करके वैदिक ज्ञान का प्रचार प्रसार करना है। इस उद्देश्य की पूति के लिये वर्ष 2004 में उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद से एक हजार वर्ग मीटर भूमि लेकर पंÛ उमादत्त त्रिवेदी वेद विद्यापीठ की स्थापना की गयी थी। इसमें विद्यार्थियों को शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिन वाजसनेयि संहिता के सस्वर पाठ के साथ साथ संस्कृत तथा आधुनिक विषयों की निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाती है और उन्हें आवास एवं भोजन की निःशुल्क सुविधा दी जाती है।
यह विद्यालय केन्द्र सरकार के संगठन महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रपिष्ठान, उज्जैन से मान्यता प्राप्त है और महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद संस्कृत शिक्षा बोर्ड से सम्बद्ध है।

महत्वपूर्ण

यह उल्लेख करना अत्यन्त आवश्यक है कि हम किसी विद्वान के न तो अन्धभक्त हैं और न विरोधी, हम केवल वेद एवं सत्य के अनुयायी हैं और सत्य का स्पष्ट रूप से उल्लेख करतें हैं। हमारा दृढ विश्वास है कि सत्य ही धर्म है, असत्य कभी धर्म नहीं हो सकता।
सत्य का वृत ही वैदिक धर्म का सबसे बड़ा वृत है जिसका उल्लेख यजुर्वेद 1/5 में किया गया है। वेद का यह स्पष्ट आदेष है कि केवल सत्य में ही श्रद्धा रखनी चाहिये, असत्य में नहीं। यजुर्वेद 19/77

वेदों की महिमा

वेदोऽखिलोधर्ममूलम्। समस्त वेद धर्म के मूल हैं।

वेद स्वतः प्रमाण हैं, अन्य सभी शास्त्र परतः प्रमाण हैं
वेद प्रणिहितो धर्मों ह्यधर्मस्तदविपर्ययः।
वेदो नारायणः साक्षात् स्वयंभूरिति शुश्रुम।।
श्रीमद् भागवत षष्ठ स्कंध, प्रथम अध्याय, श्लोक-40
ईश्वरीय वाणी होने कारण वेद साक्षात् नारायण स्वरूप हैं। वह अपौरुषेय हैं किसी पुरुष के द्वारा उनकी रचना नही की गयी है। मन्त्रों में उल्लिखित ऋषि मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्रों के रचयिता नहीं हैं 
वेद चारों वर्णों के पुरुष एवं स्त्रियों के लिये, वनवासियों के लिये सभी अपनों के लिये और सभी परायों के लिये हैं। सभी को उनके अध्ययन का पूर्ण अधिकार है चाहे वह किसी धर्म के मानने वाले हों या किसी देश के रहने वाले हों। इसमें किसी प्रकार का भेदभाव नही है। यह बात यजुर्वेद के अध्याय 26 के द्वितीय मन्त्र में स्पष्ट रूप से कही गयी है। 
चत्वारो वा इमे वेदा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति।

ओ३म्

ओ३म् ही भगवान का सर्व श्रेष्ठ नाम है। 
ओ३म् खं ब्रह्म। यजुर्वेद 40/17 ओ३म् आकाश के समान व्यापक ब्रह्म है। 
पुरुष एवे सर्वं य˜ूतं यच्च भाव्यम् यजुर्वेद् 31/2 
भूत वर्तमान तथा भविष्य में जो कुछ था, जो कुछ है, और भविष्य में जो कुछ होगा, वह सब पुरुष ही है, ब्रह्म ही है। 
ओ३म् इति ब्रह्म। ओ३म् इति इदम् सर्वं- तैत्तिरीय उप 1/8
ओ३म् यह ब्रह्म है। यह सारा संसार ओ३म् ही है।
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति- मुण्डक उप 2/2/10 कठोपनिषद् 2/2/15 श्वेताश्वतर उपनिषद् 6/14 उसी के प्रकाश से यह समस्त जगत् प्रकाशित होता है, आलोकित एवं सुशोभित होता है।